अगर आप ये मानते हैं कि भारत में दहेज़ आदि की वजह से लड़कियों को गर्भ में मार दिया जाता है तो आप गलत हैं. अगर ऐसा होता तो सड़कों पर सिर्फ कन्या भ्रूण ही मिलते जबकि वास्तविकता ये है कि कन्या भ्रूण के बराबर और उससे भी ज्यादा बालक भ्रूण पाए जाते है. अल्ट्रा साउंड मशीन तो 1990 के बाद प्रचलन में आई है, इससे पहले गर्भ में बच्चे का लिंग परिक्षण कैसे होता आया है और वो भी सदियों से? कन्या भ्रूण हत्या की खबर तो सुर्खिया बन जाती है और सरकार से फण्ड उगाही का जरिया बन जाती है जबकि बालक भ्रूण को नाजायज औलाद की संज्ञा दे कर चुप्पी साध ली जाती है क्योंकि बालक भ्रूण हत्या रोकना सरकार की प्रचार प्रसार नीति का हिस्सा नहीं है या यूँ कहें कि ये आउट आफ फैशन की बात है. दरअसल पूरी दुनिया के 95% से अधिक देशों में लड़कियों की अपेक्षा लड़के ज्यादा पैदा होते ही हैं तो क्या इन देशों में दहेज़ आदि का रिवाज़ है?
In India, if you feel more girls were killed in womb, because of dowry system or anti female society; then you are wrong. More Male baby killed in womb. India is NOT anti women country.
https://scroll.in/pulse/815281/more-male-foeticides-than-female-official-data-indicates-vast-under-reporting
आज़ादी के बाद के 68 वर्षों में, अपनी मेहनत और योग्यता के आधार पर आज भारत में महिला एक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री आदि पदों पर आ चुकी है जबकि अमेरिका जैसे विकसित कहलाने वाले देश में आज़ादी के 200 साल बाद भी एक महिला राष्ट्रपति तक नहीं बनी. जबकि यही अमेरिका जैसे देश आज भारत में महिला सशक्तिकरण के नाम पर भारतीय परिवारों और संस्कारों को महिला बंधन बताकर, परिवार विद्रोह और स्वतंत्रता के नाम पर स्वछंदता फ़ैलाने वाले कानून बनवाने के लिए महिला संगठनों को फंडिंग कर रहे हैं जिनमे भारत में चल रहे विदेशी चैनलों के टी वी सीरियलों का बड़ा हाथ है.
Dowry is Crime or Tradition?
दहेज जुर्म है या व्यवस्था ?
दहेज के नाम पर जबरन पैसे की वसूली करना जुर्म है, लेकिन दहेज जुर्म नहीं हैं। समस्या दहेज नहीं है बल्कि हमारे रिवाजों और कानून के टकराव की है। विवाह के समय यदि लड़का पक्ष जेवर कम लाता है तो लड़की पक्ष द्वारा बारात लौटा देना भी जुर्म होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। हम सभी अपने रिश्तेदारों की शादियों में कुछ उपहार आदि देते हैं और बहू आने पर लड़के के रिश्तेदार भी बहू को कुछ उपहार आदि देते हैं मगर सरकार की नजर में यह सब जुर्म है। तो क्या हम सभी लोग गुनहगार हैं और दहेज लेने देने की श्रेणी में आते हैं? दहेज की कानूनी परिभाषा-
Definition of “dowry”.—In this Act, “dowry” means any property or valuable security given or agreed to be given either directly or indirectly— (a) by one party to a marriage to the other party to the marriage; or (b) by the parents of either party to a marriage or by any other person, to either party to the marriage or to any other person, at or before 1[or any time after the marriage] 2[in connection with the marriage of the said parties, but does not include] dower or mahr in the case of persons to whom the Muslim Personal Law (Shariat) applies.
कानूनन् तो सभी को जेल में डाल देना चाहिए। रिवाज और कानून में विरोधाभास है या नहीं ?
दहेज व्यवस्था क्या है ? –
हमारे संस्कारों में बेटियों की तुलना देवी से की गई है। रिवाजों में भी स्पष्ट दिखता है और लड़की को पराया धन मानकर उसकी परवरिश होती थी। अर्थात् बचपन से ही लड़की के मन में डाल दिया जाता था कि यह मायका तुम्हारा घर नहीं है। उसे, उसके होने वाले पति की अमानत के तौर पर पाला जाता था। यहां तक कि मोहल्ले के धोवी, नाई, दर्जी आदि लड़कियों से अपने किये गये काम के बदले पैसे नहीं लेते थे और कहते थे कि जब तुम्हारी शादी होगी तो तुम्हारे दूल्हे/ससुराल वालों से लेंगे। आज भी लड़के वाले शादी में लड़की पक्ष की नाई, धोबी, मालिन, दर्जी, बढ़ई व कहार आदि के लिए कपड़ा, उपहार लाते हैं व रूपया पैसा देते हैं।
गांव के अन्दर बसे परिवारों में आपस में शादी नहीं होती थी अर्थात वह पूरी गांव की बेटी होती थी। कोई भी लड़का उस पर बुरी नजर डालने की हिम्मत नहीं करता था और यदि ऐसे कुछ दिखे तो गांव समाज उसका बहिष्कार कर देता था और सजा देता था।
पिता की सम्पत्ति में लड़की का हिस्सा - इसकी भी बुजुर्गो ने बहुत ही शालीनता से व्यवस्था बनाई थी जिसे आज दहेज कहा जाता है। पिता की सम्पत्ति में पुत्री का हिस्सा होता था लेकिन यह अप्रत्यक्ष रूप से कैसे दिया जाता था और इसे गहराई से समझने की आवश्यकता है - प्राचीन काल में हमारे भारत की अधिकतर आबादी कृषि या पशुपालन पर निर्भर रही है। दोनो ही सूरतों में जमीन का होना आवश्यक है। अर्थात जीविका का स्रोत जमीन रही है। जन्म से ही इस जमीन पर पुत्र के समान पुत्री का भी हक बनता है। रिवाज के अनुसार विवाह पर पुत्री को विदा किया जाता है किन्तु जमीन को वहां से विदा नहीं किया जा सकता है। तो क्या लड़की का हक मर गया ? नही । भारत में ज्यादातर किसान हैं और गरीब हैं। किसान अपनी पुत्री के विवाह के लिए हर वर्ष हर फसल पर कुछ न कुछ बचत करके रखता था। शादी की रस्म भी कई भागों में होती थी जैसे - शादी , उसके दो वर्श वाद गौना और उसके दो वर्ष बाद थौना आदि... अर्थात् किसान पर एकदम से शादी के खर्च का बोझ नहीं पड़ता था। लड़की भी मायके में अपने हिस्से का लगभग 30 प्रतिशत अपने साथ चल सम्पत्ति के रूप में ले आती थी, जमीन नहीं। उसके हिस्से की जमीन से अभी भी उसके मायके वाले आय प्राप्त करते रहते थे। ध्यान रहे लड़की का शेष 70 प्रतिशत सम्पत्ति का हक अभी भी लड़की के मायके में ही है। इसी लिए कहावत भी है कि “लड़की बूढ़ी होती है लेनी-देनी बूढ़ी नहीं होती।“ अर्थात लड़की के पुत्र व पुत्री के विवाह पर मामा खर्च करता था। सरकार ने विपरीत परिस्थितियों में (विधवा अथवा तलाकशुदा होने पर) उस विवाहित पुत्री को मायके की सम्पत्ति को उपभोग करने का अधिकार जीवनकाल तक दे रखा था। इस प्रकार मायके में अपने हिस्से का वह उपयोग तो कर सकती थी किन्तु बेच नहीं सकती थी।
हमारे रीति रिवाज में भी रक्षा बन्धन, भाई दूज आदि पर्व हैं जो भाई को उसकी बहन की जिम्मेदारी उठाने की प्रेरणा देते है। रिश्ते एक मर्यादा की डोर से बंधे रहते थे। सम्पत्ति से बड़ा होता था – “रिश्ते नातों का सम्मान”। और एक व्यवस्था दी गई थी जहां लड़की पक्ष को कम एवं लड़के पक्ष का सशक्त बताया गया था। हम आप ही कहीं लड़की वाले होते हैं तो कही लड़के वाले। वर पक्ष का भी विवाह को लेकर काफी खर्च होता है। जैसे लड़के की शादी में बहू के लिए जेवर की व्यवस्था करना। बेटा जो अभी जमीन पर या टूटी खाट पर कहीं भी पड़ा रहता था उसके व बहू के लिए एक अलग कमरा बनवाना। एक कमरा/मकान बनवाने का खर्च दहेज में आये सामानों से कहीं ज्यादा होता है और यह उपहार बेटा बहू को लड़का पक्ष देता है। इस बहू का पति की सम्पत्ति पर अधिकार होता था, जो कि दहेज में आई सम्पत्ति से कहीं अधिक होता था। पति के जीवित न रहने पर पति की सम्पत्ति में उसको ससुराल में रहने पर हिस्सा मिलता था और बच्चों को दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ आदि का नैसर्गिक संरक्षण मिलता था। यदि बच्चे नहीं होते थे तब ससुराल के लोग उसके पति के हिस्से की भूमि पर खेती करते थे और उस विधवा बहू के जीवनयापन की व्यवस्था करते थे, फिर चाहे वह अकेली विधवा बहू ससुराल में रहे या मायके में, उसे ससुराल की ओर से गुजारा भत्ता दिया जाता था, लेकिन आय की स्रोत कृषि भूमि उसी गांव परिवार में रहती थी।
हमारे रिवाज के अनुसार बहू अपने ननद के पैर छूती थी (चाहे वह उम्र में छोटी ही क्यों न हो) और बहन खुशी से अपने भाई-भाभी की गृहस्थ जीवन को अपना आशीर्वाद प्रदान करती थी। यह विवाहित ननद घर की आमदनी का स्रोत (खेती की जमीन) से अपना हिस्सा नहीं लेती थी, वहीं उस विवाहिता नन्द को भी अपनी ससुराल में अपने पति की बहनों (ननद) का आशीर्वाद प्राप्त रहता था। चूंकि कानूनन व रिवाजों में भी विवाहित ननदों (पुत्रियों) का सम्पत्ति में हक नहीं होता था इस कारण उनका ध्यान भी इस ओर नहीं जाता था और रिश्तेनाते मजबूत थे।
दहेज का दुरूपयोग - कुछ (एक-दो प्रतिशत) लालची लड़के वालों ने इस रिवाज की आड़ में मान-मर्यादा को किनारे रखकर बेशर्मो की तरह इसे पैसा कमाने का जरिया बना लिया। तो दूसरी ओर कुछ लड़की वालों ने भी लड़की को पराया धन बताकर उसे मात्र पहने कपड़ों में विदा कर उस लड़की का हक मारने की कोशिश की। विवाद भी यहीं से शुरू हुआ। सरकार ने भी यहां अपनी ‘डिवाइड एण्ड रूल‘ की नीति अपनाई। इन कुछ लालची लोगों को सजा देने की बजाय, सरकार ने बहू के जरिये इनको बहू के मायके की सम्पत्ति में हिस्सा दिला दिया। जबकि शेष 98 प्रतिशत लड़के, जिनको विवाह के समय कुछ घर-गृहस्थी का सामान लड़की पक्ष ने दिया गया था, उनको दहेज का लालची बता दिया गया। अब कानूनन दहेज रिवाज से बदल कर जुर्म हो गया। अर्थात् वो दो प्रतिशत को तो सजा नहीं हुई, हॉ निर्दोष 98 प्रतिशत लोगों पर झूठे आरोप लगाकर धन उगाही का जरिया, थानों के माध्यम से बन गया। सरकार ने दहेज को जुर्म घोषित किया और विवाहिता पुत्री को मायके में सम्पत्ति का अधिकार देकर भारतीय संयुक्त परिवार की परम्परा की नींव हिला दी। वह लड़कियां जो रीति रिवाज के नाम पर ही सही किन्तु बुजुर्ग माता-पिता व सास-ससुर का सम्मान करती थी। आज संस्कार को किनारे रखकर कानूनी अधिकार के नाम पर ससुराल में लड़ रही हैं, सारा महिला सशक्तिकरण पति व उसके परिवार को नोचने में लगा है, माना शादी न हुई, गुनाह किया है। विवाहिता पुत्रियां अब मायके में अपनी सम्पत्तियां मांग रही हैं और तब वहां उसे वही मायके वाले कानून की बजाय संस्कार सिखाते हैं। अर्थात कानून ससुराल के लिए संस्कार मायके के लिए।भाई-बहन के सम्पत्ति के विवाद अब न्यायालय में बेतहाशा बढ़ रहे हैं। ननद-भौजाई का झगड़ा हुआ नहीं कि ननदों ने अपना हिस्सा कानूनन मांगा और खेती की जमीन के टुकड़े हो गये परिवार के सभी लोगों ने अपना-अपना हिस्सा लिया। पति के हिस्से भी जरा से जमीन आई। वह बहू जो इस दहेज व्यवस्था के कारण ही पूरे घर की रानी थी अब एक कमरे में सिमटकर रह गई। पति-पत्नी में खटास हुई, उसके लिए भी पति से धन उगाही का कानून मौजूद है, चाहे शादी तीन दिन की हो या तीन घण्टे की। पति की देखभाल हो न हो लेकिन उसकी सम्पत्ति व आमदनी से हिस्सा दिलाकर सरकार ने पति-पत्नी के बीच भी खाई पैदा कर दी है। पुरूष हर तरफ से मर रहा है - पहले बहनों को हिस्सा फिर तलाक पर पत्नी को हिस्सा, माता-पिता का भरणपोशण, अविवाहित भाई बहनों की जिम्मेदारी ऊपर से जीवन भर का पत्नी का भरणपोषण भत्ता आदि। दहेज कानून के नाम पर पूरे संयुक्त परिवार को प्रताड़ित किया जाता है। घर या दूर रह रही ननदों को भी मुजरिम बना दिया जाता है। पूरे परिवार का यह अपमान अरोपी विवाहित पति बर्दाश्त नहीं कर पाता है और मानसिक व आर्थिक रूप से पूरी तरह टूट कर आत्महत्या करने में सुकून महसूस करता है।और दूसरी ओर वो महिला भी इतने आरोप लगा चुकी होती है कि ससुराल जाने की हिम्मत नहीं कर पाती।
भारतीय सामाजिक दहेज व्यवस्था में दोनों परिवार एक मर्यादा की डोर से बंधे रहते थे और स्त्री अधिकार भी सुरक्षित रहता था, साथ ही सबसे बड़ी बात, आय का मुख्य स्रोत – कृषि भूमि, के टुकड़े नहीं होते थे और एक ही जगह पर यह कृषि भूमि भाइयों के बीच रहती थी, क्योंकि भाई विदा होकर नहीं जाते थे। बच्चों की परवरिश में दादा दादी की भूमिका अहम होती थी। बहुएं घर का काम निपटाती थीं और दादा दादी बच्चों से साथ मस्त रहते थे और उनको नैतिकता की शिक्षा और अपने अनुभव देते थे जिससे यही बच्चे बड़े होकर एक सभ्य भारत की नींव बनते थे। सब खुश थे और पूरा परिवार एक व्यवस्था के अन्तर्गत चलता था सबके कार्यो का विभाजन, उनकी क्षमता के अनुसार, घर का मुखिया करता था।
किन्तु सरकार ने रिवाजों को धता बताकर विदेशों की तर्ज पर जो महिला सशक्तिकरण का फार्मूला अपनाया है वह भारत में तलाक के अनुपात को 1 प्रतिशत से 40 प्रतिशत पहुंचाने में जरूर कामयाब होगा यही सरकार की मंशा भी है कि - अपने संस्कारों को गाली दो, विदेशी अपनाओ, देश की संस्कृति को महिला शोषक बताकर विदेशियों की तरह स्वच्छन्द जीवन जियो और उन्हीं विदेशियों से महिला सशक्तिकरण के नाम पैसा मांगकर देश को कर्जदार बनाओ और भारत की पंच-परमेश्वर न्याय प्रणाली को गाली दो। वह अमेरिका, जहां आजादी के 200 वर्ष बाद भी आज तक महिला राष्ट्रपति नहीं बनी, वो हमारे देश को महिला सशक्तिकरण का पाठ सिखाता है।
कुल मिलाकर रीति रिवाजों में दहेज भी एक सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था है, न कि जुर्म।
सारी दुनिया 0-6 आयु वर्ग में ही महिला पुरुष का लिंगानुपात देख रही है और ये अफवाह फैलाई जा रही है कि समाज स्त्री विरोधी है या पितृसत्तात्मक समाज स्त्री का उत्पीडन करता आया है. जबकि सच्चाई ये है कि यही पितृ सत्तात्मक समाज स्त्री को सुरक्षा और भरणपोषण देने के लिए स्वयं अपने ऊपर जिम्मेदारी लेता आया है. यहाँ तक कि बेटी की शादी बड़े घर में कर सके उसके लिए पिता और भाई ही रूपये इकठ्ठा करते हैं न कि बच्चियां. यही पुरुष स्त्री को घर के काम सौंपकर स्त्री को घर में सुरक्षित रखता है जबकि स्वयं घर से बाहर निकलकर गर्मी, बारिश और ठंडी झेलकर, बसों और ट्रेनों में धक्के खाकर मेहनत से जो रूपये कमाता है उसका शायद 15% भी स्वयं पर न खर्च करके पुरे परिवार का भरण पोषण करता है. इसी भाग दौड़ मैं कई पुरुषों की जान भी चली जाती है. या पारिवारिक कलह में सुनवाई न होने के कारण हर साल 64,000 पुरुष आत्महत्या कर लेने पर विवश हो जाते हैं. 35 वर्ष की आयु तक आते आते ये लिंग अनुपात 49%महिला बनाम 51% पुरुष हो जाता है.
जीवन के 60 साल तक लगातार जाड़ा, गरमी, बरसात में बाहर विपरीत परिस्थिति में काम करते रहने के कारण पुरुष शरीर टूट सा जाता है जबकि महिला का शरीर घर में रहने के कारण उतना प्रभावित नहीं होता. यही कारण है कि आज भारत में महिला की औसत आयु पुरुष से ज्यादा है और 65 वर्ष के ऊपर 75 वर्ष की आयु तक आते आते स्त्री पुरुष का लिंगानुपात उलटकर 90 : 100 रह जाता है, लेकिन पुरुष के इस सामाजिक योगदान पर समाज में कोई चर्चा तक नहीं, बल्कि उस स्त्री को, सुरक्षा और छत देने वाले को, नारी को कैदखाने में रखने वाला बताकर पितृसत्ता को हेय दृष्टि से देखा जाता है.
इस प्रकार पैदा होने के बाद कौन सबसे ज्यादा परेशान और मर रहा है जांचा जा सकता है –
आयु वर्ग 00 – 06 वर्ष लिंगानुपात महिला 47% : 53% पुरुष है (प्रति 100 महिला पर 110 पुरुष)
आयु वर्ग 07 – 65 वर्ष लिंगानुपात महिला 49% : 51% पुरुष है (प्रति 100 महिला पर 104 पुरुष बचे)
आयु वर्ग 66 – 99 वर्ष लिंगानुपात महिला 53% : 47% पुरुष है (प्रति 100 महिला पर 88 पुरुष ही बचे)
00 - 06 आयु वर्ग में, कुदरती तौर पर महिला अनुपात कम होने पर भारत को महिला विरोधी बताया जाता है, लेकिन 60 वर्ष के बाद जब यही अनुपात/आकड़ा उलट जाता है तो सब मौन क्यों ?
If you believe that dowry is one of the reasons for female foeticide (destruction or abortion of a foetus) in India, you are grossly mistaken and outright incorrect. If this were true, one would have only found female embryos scattered all over (medical units, public places/ streets, etc.), whereas this number for destroyed & disposed male embryos is oftentimes comparable if not larger. If ultra-sound machines for embryo-detection came into use only after the 1990's, it remains a mystery how embryos were detected to carry out the so called "age-old practice" of female foeticide as claimed by lobbies propagating such myths. While news about female foeticide very often capture prime-time & front-page headlines with the sole intent to justify and pressurize the government to dole out generous "awareness and prevention" funds; prevalence of male foeticide, on the other hand, is brushed under the carpet with the taint of "illegitimacy" because reporting the latter is simply very "out of fashion" or never find an appropriate & politically correct place in our government's communication and foeticide mitigation policy. The following link to a report tell the true story:
https://scroll.in/pulse/815281/more-male-foeticides-than-female-official-data-indicates-vast-underreporting
India is NOT an "anti-women" society. In our 70 years since independence, Indian women have propelled themselves to positions of power and prominence on merit and sheer perseverance. They include one woman president (head of state) and a prime minister (head of government), speakers of the Lok Sabha and many chief ministers. The world's most developed economy, The United States of America, in stark contrast, has not elevated even one woman to its coveted presidency in the 200-plus years since its independence. It is ironic that such foreign powers are insidiously funding and propagating agencies in the pretext of women's empowerment by breaking down the very tenets of India's family system. Such agencies backed-up by money from the developed west falsely and dubiously call-out India's family system as too regimented for women's advancement and covertly incite conflicts within the Indian family. Even the television media and entertainment channels have become weapons of such destructive propaganda.
Extorting money in the name of dowry is a crime, but the tradition itself is not. The problem is not with dowry, but the conflict between our customs and the laws that we have. For instance, at the time of marriage, if the groom's side is sent back for bringing less-than-expected jewelry and other gifts, the bride's family must be held accountable under the law. But no such provision exists for such common occurrences. Exchanging gifts between members of both the groom's and bride's families is an established practice during marriages. But government stays silent about such hand-overs/exchanges. So, is everyone guilty and do such practices of gifting the bride and groom come under dowry? Here is the legal definition of dowry:
" Definition of dowry — In this Act, "dowry" means any property or valuable security given or agreed to be given either directly or indirectly— (a) by one party to a marriage to the other party to the marriage; or (b) by the parents of either party to a marriage or by any other person, to either party to the marriage or to any other person, at or before 1 [or any time after the marriage] 2[in connection with the marriage of the said parties, but does not include] dower or mahr in the case of persons to whom the Muslim Personal Law (Shariat) applies."
As per law everyone should be imprisoned as per the above definition. What a contradiction between Customs and Laws!! What is Dowry System?
In India daughters were treated like goddesses. A daughter was nurtured as *Paraya Dhan* or someone else's wealth. From childhood, it was ingrained among family, relatives and neighbors that the girl's parents were merely her custodian till marriage and she had no right over her parents' house or property. Even the tailor, barber, washer would never charge the daughters and and would rather defer any payment to the groom and his family at the time of marriage. Even today the groom's family gives gifts, dress material and cash to the bride's village workers like tailor, barber, carpenter, gardener, caretaker, servants, among others. A girl was treated like a daughter of the whole village and so marriage with a boy from the same village was prohibited/avoided. Boys of same village would treat her with respect like their sister and anyone found mistreating her was to be boycotted by village dwellers.
In earlier times, our elders created a very graceful decent system to give the daughters their share in parental property, which is now being called Dowry. Let's understand how this share was designed. Most of India lived in villages and our society was primarily dependent on agriculture and dairy farming. Family earning was based on land ownership. All children were to have equal rights in parental property. As per prevailing customs, a daughter was sent-off to her husband's home but her share of the land could not be transferred. So what was the solution? In India most were small farmers and being economically weak, they would save some money for their daughter's wedding on every harvest. Marriage rituals also would be spread over time - e.g. typically after two years from the wedding day, the bride would leave her parents' house to be with her husband permanently, and so on. This relieved the bride's father from not having to spend money, all at one go. By practice, the bride would get about 30% of her parent's share at the time of wedding, instead of land. On her share of the land her maternal family would grow crops and continue to earn. The remaining 70% was vested in her parental home, that is why there is an adage, "Daughters get old, but not her share in parental home or the accompanying custom of exchanging gifts." This meant that even at the marriage of her children, maternal uncles would spend and give gifts to whole family. Even if she is widowed or divorced she could use her share in the parental property till her death, but not sell it. Our festivals, like Raksha Bandhan, Bhai Dooj, among others also encourage brothers to send gifts to their sister and commit some social responsibilities. Bonding was strong by virtue of love and dignity, and "respect for relationships" used to be above property and material gains. Gender equality was not a far-fetched thing due to such family bonhomie and social equity.
During a marriage, the groom's side also has to spend a lot - e.g. jewelry for the bride, arrangements for separate room for the couple. Expenditure on building a room or house which is gifted by the boy's family to usher in the new bride. All these would amount to much more than the items brought as gifts by the bride. Bride also has right on property of her husband which is much more than the gifts she had brought; this right remains even if the husband expires. In a joint family set-up, even a widow's children enjoyed love, affection and care from all relatives while enjoying the company of cousins they grow up with. If she did not have children, her in-laws family would earn from farming on her (courtesy her late husband) share of the land and take care of her expenses, but the land would remain in her in-laws name.
As per tradition, a new bride would would seek blessings from her sister-in-Law for a happy married life, by touching her feet despite being younger or elder. A married sister-in-law never used to have a share in the agriculture land of her brothers, but would similarly get blessings of her own sister-in-law in her husband's home. Such a balancing zero-sum effect would encourage a strong bonding between the sisters-in-law.
Problems started when a handful of greedy people on either side started misusing our social customs to maximize their share by misappropriation. Divide and rule policy was also applied here within the family. Instead of punishing such greedy people, laws were made to give daughters a share in her parental property. Rest of the people were called greedy of gifts and what ever gifts were given at time of marriage was tagged as Dowry. Now even the customary gifts became a crime. Instead of punishing those greedy 1-2%, the remaining 98% were arrested under false cases using some draconian plain-vanilla laws. By criminalizing Dowry and giving daughter a share in property, the joint family system was broken. Women who would respect family elders started fighting over property. The foundation of our joint family system is shaken. These days cultural values are not to be seen and women are fighting with husband and his family in the name of empowerment, all this often at the drop of a hat. Does this mean marriage itself has become like a crime? Now when daughters ask share in property from their parents, parents remind her of their Indian cultural values. I.e. Laws for in-laws and values for the girl's parents. Cases between brothers and sisters for property are increasing every day. Even due to minor differences between wife and sisters, sisters start asking for her share and this leads to division of property and agricultural land in family. Husband also get a small piece of land as share. The daughter-in-law who used to be queen of whole house is now owner of a single room.
There are laws for women irrespective of whether a marriage lasted for 3 days or 3 months, even if she lived with him or not. She is eligible for a share in property, even if she had not taken care of her husband for a day. Such laws have mounted an insurmountable barrier between the husband and wife. The man is sandwiched as he has to give away a share to his sister and, on divorce, a share to his wife; then maintain his parents, responsibilities of unmarried dependent siblings and after that a burdensome monthly maintenance to his separated wife. All members of the Indian joint family are getting harassed by this Dowry Law, even unmarried sisters-in-law, married sisters-in-law staying away from family are named "partners in crime." A falsely accused husband, not being able to tolerate this humiliation of his entire family, often emotionally and financially breaks down and many are driven to take extreme steps like suicide. On the other side, the women also does not have courage to come back to in-laws home because of falsely accusing them by way of such draconian laws. Both families were earlier bonded together strongly by the the tradition of Indian Social Dowry and joint family System. Additionally, women's rights of equitable share were also secured. The source of income formed the basis of share; agricultural land itself was not divided. It used to be at the same place between brothers as they would stay together in a joint family set-up. Grand parents used to take care of grand children and played a significant happy role in passing on moral family values under the able shared parentage of both parents. In this way these children would become great pillars of our Indian society. Families were happy and would function under a system with roles and work divided and defined for each member by the head of family as per each member's capabilities.
The formula of women's empowerment adopted by our Government, a blind and mindless copy from other countries, will take India's divorce rate from 1% to 40%. I feel that the Government also wants the same - to abuse our heritage, adopt foreign culture mindlessly, portray Indian society as women-unfriendly and abusive, and seek foreign funds in the pretext of women empowerment thereby burdening our exchequer and be at the wrong side of American diktat (vide women's empowerment lobbies that weaken our socio-cultural roots). Is it not too much to allow foreign powers to intrude and destabilize our socio-legal system? - by the likes of an alien country which even after 200 years of independence could not elect a woman president. Most certainly, this country and its ilk must not teach us what is women's empowerment. In my resounding conclusion, Dowry is a profound socio-economic arrangement and not a crime when laws are balanced and made gender neutral